बुंदेलखंड मालवा की भुंजरिया (कजलियों)
राखी के एक दिन बाद आती है बुंदेलखंड मालवा की भुंजरिया (कजलियों)........
बड़े ही लाड प्यार से इनको बड़ा करते है, बचपन में अम्माँ, नागपंचमी के बाद ही घर की सबसे अच्छी वाली चूल्हे की राख तैयार करती और गेंहूं को एक रात पानी में भिगोने के बाद, खबासन बाई के दिए हुए बड़े बड़े दोना (बड़ा कटोरा पत्ते का बना हुआ पात्र) में घर के तीन चार जगह बोया जाता है एक पूजा के मंदिर के पास, दूसरा तुलसी के पास छोटा खेत बना कर पूरे समय इन पांच दोना को बोइया (बाँस की बड़ी टोकरी) से ढक कर रखना होता है ताकी सीधी हवा ना लगे और सीधे प्रकाश की किरणे भी ना पड़े इस तरह इनका पीला पन बरक़रार रहता है रक्षाबंधन की पूर्णिमा के समय तक रोज़ पूजा करते समय थोड़े थोड़े जल की बूँदें छिटक देते है ताकि नमी भी बनी रहे और अधिक जल की मात्रा भी ना हो। हम जब छोटे थे तो रोज़ बड़ी उत्सुकता रहती थी देखने की, कि कितने बड़े गेंहूं हुए मतलब "हमरी भुंजरियें कित्ती बड़ी हो गयी" क्योंकि उनके बड़े होने पर ही रक्षाबंधन आएगा और हम झूला झुलाएंगे।
रोज़ कभी गलती से ज्यादा पानी गया तो अम्माँ की डाँट सुननी पड़ती थी क्योंकि जिसकी भुंजरिएँ सबसे बड़ी घनी और पीरी मतलब भोत अच्छों शुभ संकेत।
खैर, राखी वाले दिन सारे दोना की पूजा पहले राखी कजलियों को बंधेगी, फिर भगवान् जी को फिर आँगन में तुलसी को फिर सबरे दई-देवता को उसके बाद भाई को। कितनी चहल पहल वाला माहौल गाँव में घुटने घुटने कीचड़, हाँथ में राखी-बतेसा की थारी और नई-नई साड़ी पहने बहनें कोसों दूर से भाई के घर आती है पूरे गाँव में राखी वहीं कीचड की खच खच और घर के खपड़ा से आता हुआ बारिश पानी बहार उलाइची की बाल्टी भर जाती। सब उसमें पाँव धो कर फट्टा पे पोछ कर फिर झट्टी से भाई को राखी बांधो, गुझा खाओ और विदाई लो और ख़ुशी ख़ुशी घर जाओ
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दूसरा दिन सुबह से शुरू हुआ जल्दी जल्दी नहा धो के नए कपडे पहने और दोपहर में भूंजारिओं की पूजा के लिए झूला तैयार है। २-३ बजते ही हलचल शुरू हो जाती है और सामूहिक गाँव के साथ सभी के घर से १-२ दोना नदी और मंदिर के लिए निकलते है कुछ मंदिर पर रखते है और कुछ नदी में विसर्जित कर देते है मंदिर वाले दोना से कोई भी तोड़ सकता है भगवान् को चढाने के बाद। गाँव के कुछ घरों में गमी के कारण बस भुंजरियें नहीं बोई तो यही भुंजरियें काम आती है ! हम बच्चे लोगों को सबसे ज्यादा उत्सुकता रहती थी सबसे ज्यादा नन्ही मुट्ठी जितनी भुंजरिऐं आये कस के मुठ्ठी बांधे रखो। गाँव में जो लोग शहर चले गए नौकरी/पढाई करने वो भी राखी में घर आते है उस दिन सब घरों से निकलते है और एक-एक करके सबको कजलियों का आदान प्रदान करते हुए गले मिलते पाँव लागी करके बड़ों से आशीर्वाद लेते हुए सबसे मिलते है सबके जेब में चिल्लर जरूर होती है क्योंकि बच्चे सामने आ गए तो दोनों तरफ कान के भुंजरियें लगते हुए एक दो रुपये के सिक्के भी मिलते थे वही सबसे बड़ा उत्साह था घर घर जाकर सबसे आशीर्वाद लो और चिल्लर भी। यकीन मानिये, दुनियाँ की सबसे बड़ी दौलत वही लगती थी छन छन करते सिक्के पूरे गाँव में घूमते थे, बड़ा मज़ा आता था और ये लेन - देन कृष्ण जन्माष्टमी तक चलता है तब तक भुंजरियों को सम्हाल के रखो और धीरे धीरे खर्चा करो। इन आठ दिनों में दूर दराज के गाँवों और रिश्तेदारों के यहाँ भी वितरण करो और राखी बांधो।
अब समय बदल गया वो कीचड वाली राखी और पीरी भुंजरियों बस व्हाट्सप्प और फेसबुक में कहीं कहीं दिखाई दे रहे है और ये प्राचीन प्रथा भी विलुप्त होती जा रही है।
(बचपन की स्मृति के कुछ अंश)
माया विश्वकर्मा २७/०८/२०१८
Maya Vishwakarma - माया विश्वकर्मा
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